वाह की क्यूँ चाह हो, बस कर्म ध्येय मन्त्र हो |
बन्ध से मुक्त भाव हर, निर्माण को स्वतंत्र हो ||
तम निशा भी घोर हो, गरज मेघ करते शोर हों |
है शक्त कहाँ जो रोक ले, होना नवल भोर को ||
चीर कर हर आपदा, अरुणाभ होता प्राची चीर है,
धार वीर धीर दृढ ले, फिर निष्फल हर तंत्र हो |
बन्ध से मुक्त भाव हर, निर्माण को स्वतंत्र हो ||
लय ढूंढ ले इसी में सब, प्रकृति साज बज रहा |
उन्मुक्त कंठ कलरव कर, खग चहक कह रहा ||
पवन का प्रसार हो, या फिर विपथगा की धार हो,
है प्रकृति प्रदत्त स्वतंत्रता, फिर तूँ क्यों परतंत्र हो |
बन्ध से मुक्त भाव हर, निर्माण को स्वतंत्र हो ||
उठती लहर सिन्धु देख ले, प्रकृति रूप हरेक ले |
नियम नियति की पालना, बस ये शपथ एक ले ||
हैं रचे अनेक फंद बंध के, प्रशस्त राह तेरी रोकने,
बुद्धि, भाव, कर्म, श्रम से, निर्माण मूलमंत्र हो |
बन्ध से मुक्त भाव हर, निर्माण को स्वतंत्र हो ||
Sharmishtha said:
beautiful!
sharmishtha
hindibaaten.wordpress.com
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UMMED DEVAL said:
बहुत बहुत शुक्रिया शर्मिष्ठा जी, आपने यादें रचना की भाषा के सन्दर्भ में पूछा था तो वह राजस्थानी भाषा है और आपकी सहूलियत के लिए मैंने उसका हिंदी अनुवाद भेज दिया है , धन्यवाद |
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Sunny said:
bahut din baad aaya aapke blog par aur phir se wahi comment “aap kabil-e-taarif ho..bemishaal, lajwaab ho”
likhte rahiye..mangal kaamna. Jai Shri Krishnaa
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