वन काट सपाट किये गिरि को, जल मारग पाट दिया कचरा |
खिलवाड़ किया सँग कुदरत के, विष नीर समीर अपार भरा ||
अनजान बने दृग मूँद रहे , विपदा घन रोज रहे गहरा |
जग संकट डूब, अकाल सहे , कर खीझ रहे बरसे बदरा ||

उम्मेद देवल
20 Sunday Aug 2017
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inवन काट सपाट किये गिरि को, जल मारग पाट दिया कचरा |
खिलवाड़ किया सँग कुदरत के, विष नीर समीर अपार भरा ||
अनजान बने दृग मूँद रहे , विपदा घन रोज रहे गहरा |
जग संकट डूब, अकाल सहे , कर खीझ रहे बरसे बदरा ||
उम्मेद देवल
18 Tuesday Jul 2017
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inउम्मेद देवल
26 Friday May 2017
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bhav-abhivykti, glani, hindi kavita, hindi kavya, hindi literature, hindi poem, hindi poetry, hindi saahity
विषम रंग रंगी हुई, आज देश देह है |
संकीर्ण सोच हो रही, सिमट रहा स्नेह है ||
नैन– नैन नीर है, हृदय– ह्रदय में पीर है |
क्षुब्ध कोटि– कोटि जन, पाँव में जंजीर है ||
साँस–साँस घुट रही, योग्यता है लुट रही |
अपाहिजों की भीड़ से, श्रेष्ठता है पिट रही ||
कालिमा की कोख में, होती नवल भोर है |
अयोग्य चीर द्रोपदी, खींचते चहुँ ओर हैं |
अनेकानेक उलझने, विपद मेघ सिर घने |
राहें रोक हैं खड़ी, कदम–कदम पे अडचने ||
मौन हैं अधर मगर, उर अनल उबल रही |
लीलने को तन्त्र को, लुप्त लौ है जल रही ||
नोचते हैं देश जो, आज देश के वे लाल हैं |
कोडियों के मोल, वीर सैनिकों के भाल हैं ||
मत मिले,अहित भले, ये सोच एक शेष है |
हज़ार हाथ लूट लो, ये सत्ता का परिवेश है ||
सत्य पीठ दे खड़ी, पत्रकारिता पथभ्रष्ट है |
हित स्वयं है साधती, सकल मूल्य नष्ट हैं ||
जाति,वर्ग,धर्म दंश, व्याप्त भय गली–गली |
डरी–डरी शाख हर, सहमी–सहमी हर कली ||
मगर न्याय एक लौ, जब तलक जल रही |
लता लोकतंत्र यह, तब तलक है फल रही ||
उम्मेद देवल
12 Friday May 2017
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inमादक गात मनोहर आनन, बंकिम लंक लगे हद प्यारी |
पूनम चंद छटा अंग राजत, कुंतल सावन की घट भारी ||
लोचन बाण अचूक चलावत, लागत सीधे आय हिया री |
डोलत आसन से मन साधक,चंचल है चित वृत्ति हमारी ||
उम्मेद देवल
06 Saturday May 2017
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inअतृप्त प्यास जिंदगी, क्षुधा सतत जिंदगी |
पड़ाव राह एक ना, है ये अनवरत जिंदगी ||
हाँफते हैं नापते, हम नित्य वो ही रास्ते |
विविध रूप तृष्णा, सिर्फ उसी के वास्ते ||
अजान लक्ष्य की तरफ, दौड़ है लगी हुई |
चैन नैन रंच ना, है व्यर्थ व्यस्त जिंदगी ||
छाँह में भी धूप है, हृदय–हृदय में भूख है |
लूट है हर तरफ, जिह्वा–जिह्वा झूँठ है ||
भर रहे हैं मुट्ठियाँ, अथाह रेत समुद्र से |
वैभव अपार हों, पर चाह अनंत जिंदगी ||
कदम–कदम खार हैं, घुला गरल प्यार है |
हरेक शांत वक्ष मध्य, छुपे हुए गुबार हैं ||
बदल जाये कब कोई, ज्ञात पल का नहीं |
खुली किताब सी नहीं, बंद ख़त जिंदगी ||
श्वास–श्वास टीस और, पोर–पोर पीर है |
जिसे देखिये यहाँ, वही बहुत अधीर है ||
भरने बांह आसमां, लोग सब लगे हुये |
आदि से अनंत तक, एक चाहत जिंदगी ||
उम्मेद देवल
13 Monday Mar 2017
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bhav-abhivykti, faag, hindi kavya, hindi literature, hindi poem, hindi poetry, hindi saahity, savaiya
खेलत फाग भरे अनुराग , रचावत रास अनूप बिहारी |
बाजत चंग,मृदंग मनोहर , बांसुरियां धुन पे बलिहारी ||
नाचत भाव विभोर हुई, अति रीझ सुनावत केशव गारी |
गाल गुलाल लगावत मोहन, मारत है सखियाँ पिचकारी ||
उम्मेद देवल
21 Saturday Jan 2017
Posted Literature, Religion
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adhoore, bhav-abhivykti, hindi kavita, hindi kavya, hindi literature, hindi poem, hindi poetry, hindi saahity, matgayand savaiya
मोहन तीर खड़े तनुजा, अति होय अधीर पुकारत राधे |
मो मुरली सुर नाम बिना तुम, ना सधते बहु भॉँतिन साधे ||
कारज एक सरे जग नाहिन, जो हरि साथ न तो अवराधे |
केशव हैं वृषभानु लली बिन, पूरण होकर भी सच आधे ||
उम्मेद देवल
19 Monday Sep 2016
Posted Literature, Religion
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bhav-abhivykti, hindi dohe, hindi kavita, hindi kavya, hindi literature, hindi poetry, ila bhar insaan
तजियो नाहिं तमस ने, भजियो ना भगवान |
पजियो हित पौरुष नहीं , इला भार इंसान ||
बचियो जो निज भार से, पचियो हित न पिछान |
रचियो नाहिं प्रीत-रँग , इला भार इंसान ||
बसियो नह उर बीच में, रसियो नह रस-खान |
कसियो नह जीवन जिको, इला भार इंसान ||
लड़ियो नाहिं लोकहित, अडियो नाहीं आन |
पडियो नह पर-पीड में , इला भार इंसान ||
उम्मेद देवल
10 Saturday Sep 2016
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bhav-abhivykti, hindi kavita, hindi kavya, hindi literature, hindi poem, hindi poetry, kavita, likhta hoon
मैं कवि नहीं हूँ, केवल अपने, उर भावों को लिखता हूँ |
महसूस किया है जिनको मैंने, उन भावों को लिखता हूँ ||
पांडित्य नहीं है छंदों का, और शब्दों का लालित्य नहीं |
लिख देता हूँ उर अवगाहन , रचना धर्म भी नित्य नहीं ||
अलग हो रहे हैं हम जिनसे, उन दायित्वों को लिखता हूँ |
महसूस किया है जिनको मैंने, उन भावों को लिखता हूँ ||
लिखता हूँ मैं दर्द मनुज का, और पीर पराई लिखता हूँ |
जो वृद्ध हुई हैआने से पहले, मैं वो तरुणाई लिखता हूँ ||
निज कर से निर्मित नर की, रिश्तों की खाई लिखता हूँ |
जीवन की आपा-धापी में, नित घटती कमाई लिखता हूँ |
लिखता हूँ मरता बचपन, मानव स्वभावों को लिखता हूँ |
महसूस किया है जिनको मैंने, उन भावों को लिखता हूँ ||
ललना का श्रृंगार भी लिखता, उनकी निठुराई लिखता हूँ |
लिखता हूँ मजदूरिन को, और उसकी रुसवाई लिखता हूँ ||
पलकों के पट भीतर जो सपने,उनकी अंगड़ाई लिखता हूँ |
यौवन नहीं शाश्वत रहता, मैं वय की सच्चाई लिखता हूँ ||
घटित लाज़मी जिनका होना, उन प्रभावों को लिखता हूँ |
महसूस किया है जिनको मैंने, उन भावों को लिखता हूँ ||
लिखता मैली होती सरिता, कानन की कटाई लिखता हूँ |
मौन कंठ कोकिल को लिखता, उजड़ी अमराई लिखता हूँ ||
रिश्तों में बीज ज़हर का बोती, मैं वो धर्म दुहाई लिखता हूँ |
लुटते जन के अरमानों को, नेता की ठकुराई लिखता हूँ ||
ठगते रोज हमारी आशा, उन मिथ्या दावों को लिखता हूँ |
महसूस किया है जिनको मैंने, उन भावों को लिखता हूँ ||
उम्मेद देवल
09 Friday Sep 2016
Posted Literature
inउम्मेद देवल