आगोश-ए- फलक से तो, फकत बरसात हुई है |
बुलंदियाँ तो धरती की कोख से, तामीरात हुई हैं ||
परस्तिश इल्म की जब भी, यहाँ इंसान ने की है |
सनद है तारीखें सारी, तब-तब करामात हुई है ||
होती कहाँ कुछ कहने को, दरकार लफ़्ज़ों की |
देखा है नज़रों की नज़रों से, अक्सर बात हुई है ||
दूरियाँ अब तलक कायम, जो तकसीम दर्जों से |
मशरिक की कब मगरिब से, मुलाक़ात हुई है ||
ज़ाबिता-ए-मुल्क उसूलन, हैं जब दोगले चलते |
घुला है ज़हर फिज़ाओं में, बदतर हयात हुई है ||
sapnaahirwar said:
Amazing
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UMMED DEVAL said:
हार्दिक आभार जी
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UMMED DEVAL said:
हार्दिक आभार सपना जी
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