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मेरे मन की अभिलाषाएँ, हैं मुझसे हँसकर यूँ बोली |
जग के कृत्रिम रंग संग में,खेली तो क्या खेली होली ||
मुख मुस्कान,वितृष्णा मन में, रखते हैं ये जग वाले |
उर में कलुष, अबीर करों में, ये मतवाले हैं विष पाले ||
अपनेपन का अबीर अगर, फिर तो लगाले भर झोली |
जग के कृत्रिम रंग संग में,खेली तो क्या खेली होली ||
कितने उपेक्षित अभी खड़े, किसने उनको संग लिया |
भूख,बेकारी,लाचारी ने, है जिन चेहरों को बेरंग किया |
क्या उनके भाल लगाईं किसने, थोड़ी नेह भरी रोली |
जग के कृत्रिम रंग संग में,खेली तो क्या खेली होली ||
संशय,भय,बैर व्याप्त है, और घुला गरल समाजों में |
मार कीच की दिखती है, लगते नारों और तकाज़ों में ||
पिचकारी में प्रीत भरे,मिलती नहीं मस्तों की टोली |
जग के कृत्रिम रंग संग में,खेली तो क्या खेली होली ||