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जब साँसे मिली है चंद हमें, फ़िर क्यों ना अपने ढंग जियें |
क्यों घुट के रहें इन बंधन में, क्यों हँसकर गम के घूँट पियें ||
और रहें सब शाद मगर, पर अपना भी तो हक़े – बहाराँ हो |
क्यों चाक करें दिल अपना, क्यों अपने ही हाथों फिर से सियें ||
माना के ना टूटे दिल कोई, पर क्या ये दिल, दिल है ही नहीं |
औरों पे नहीं है ठीक मगर, पर खुद पे सितम क्यूँ जाए कियें ||
ये दुनियाँ है, दुनियाँ वाले, हम कुछ ना करें, हैं फिर भी कहते |
परवाहे ज़माना क्यूँ करना, क्यों ज़ख्मों को दिल पर जाए लियें ||
ये तारे, बहारें, नदियाँ, गुलशन, इन लुत्फे-नजारों को क्यों खोना |
बेशक ना मगर हम कल होंगे, पर आज तो हम जी भर के जियें ||